हाल ही में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापकों की हो रही बहालियों में एक ‘अजीबोगरीब प्रक्रिया’ अपनाई जा रही है जो ‘प्राकृतिक न्याय’ के सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत है। इस प्रक्रिया में “एक तरफ तो ‘नेट(एनईटी)’ अथवा नियमानुसार रेगुलर पी-एच.डी. में से किसी भी एक को ‘सहायक प्राध्यापक पद के लिए न्यूनतम पात्रता’ के रूप में मान्यता दी गई है जबकि दूसरी ओर ‘नेट(एनईटी)’ उत्तीर्ण करने वालों को केवल 5 अंक का भारांक(वेटेज) और ‘पी-एच.डी. डिग्री धारकों’ को सीधे 25-30(महाविद्यालयों में 25 और विश्वविद्यालयों में 30) अंक का का भारांक दिया जा रहा है।”
सवाल यह है कि जब ‘नेट अथवा पी-एच.डी.’ को समान रूप से न्यूनतम पात्रता के रूप में स्वीकार किया गया है तो फिर ‘भारांक (वेटेज)’ में इतना बड़ा भेदभाव क्यों है ?? ऐसी स्थिति में हर साल अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिवर्ष ‘राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट)’ आयोजित कराने और उसका सर्टिफिकेट बाँटने की जरूरत ही क्या है? परिश्रम और प्रतिभा के बल पर हासिल किये गये उस ‘नेट-सर्टिफिकेट’ का महत्व ही क्या है जिसको केवल 5 अंक का भारांक मिल रहा है। ऐसे में “बिना नेट उत्तीर्ण किये ‘पी-एच.डी.’ कर चुके अभ्यर्थियों के सहायक प्राध्यापक(असिस्टेंट प्रोफेसर) बनने के चांस तो ज्यादा बढ़ गये हैं।”
यह तो एक तरह से प्रतिभा और परिश्रम के साथ सरासर अन्याय है। “जब ‘नई शिक्षा नीति’ के अन्तर्गत प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए ‘पात्रता परीक्षाओं’ को अनिवार्य बनाने की बात की जा रही है तो फिर ‘राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट)’ के महत्व को इतना कम करने के पीछे कारण क्या है?” कहीं यह नेट उत्तीर्ण कर पाने में असमर्थ पी-एच.डी. धारकों को पिछले दरवाजे से ‘सेट’ करने की कवायद तो नहीं है।
कुछ भी हो, असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए निर्धारित न्यूनतम पात्रता में बराबर हैसियत हासिल कर चुके ‘नेट (एनईटी)’ और ‘पी-एच.डी.’ के भारांकों में सीधे 20-25 अंक का फासला बना देना ‘प्राकृतिक न्याय’ के विरुद्ध है। या तो ‘नेट (एनईटी)’ उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को ‘बराबर-बराबर भारांक’ दिया जाना चाहिए अथवा इन दोनों में से किसी एक की न्यूनतम पात्रता की अनिवार्यता समाप्त कर दी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा करते समय ‘नई शिक्षा नीति’ की ‘शिक्षकों के लिए अनिवार्य पात्रता परीक्षा’ सम्बन्धी संस्तुति को भी महत्व दिया जाना चाहिए, अन्यथा ‘नई शिक्षा नीति’ का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा।
ऐसे में अभ्यर्थियों की चुप्पी रही तो सरकार अपने इस मनमाने शासनादेश को ‘पूर्णतया स्थापित’ करने में सफल हो जाएगी और परिश्रम व प्रतिभा के बल पर ‘नेट’ उत्तीर्ण करने वाले युवकों के साथ ‘अन्याय’ तो होगा ही, ‘स्नातक-शिक्षा की गुणवत्ता’ भी प्रभावित होगी। क्योंकि इस प्रक्रिया में लिखित प्रतियोगिता परीक्षा न करा करके ‘एपीआई'(एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्स) के आधार पर ‘छँटनी’ की जाएगी। इस छँटनी में नेट-उत्तीर्ण करने वाले तो छँट जाएँगे लेकिन ‘नेट’ नहीं उत्तीर्ण करने वाले पी-एच.डी. धारक चयनित हो जाएँगे।”
इस सम्बन्ध में ‘मेरा विचार’ यह है कि “विश्वविद्यालयों अथवा महाविद्यालयों में कहीं भी स्नातक-स्तर (Graduation-Level) पर ‘असिस्टेंट प्रोफेसर’ के पद पर नियुक्ति के लिए ‘नेट(नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट)’ की अनिवार्यता’ बनाये रखना ‘स्नातक शिक्षा की गुणवत्ता’ के लिए उचित है!” ‘नेट(NET)’ परीक्षा में ‘विषय का गहराई से परीक्षण’ होता है। साथ ही तार्किक क्षमता, शोध क्षमता, शिक्षण कौशल, सूचना तकनीक, संचार कौशल, पठन क्षमता, गणना क्षमता, उच्च शिक्षा, पर्यावरण ज्ञान और भारतीय संविधान व राज्यव्यवस्था सम्बन्धी जानकारियों का पारदर्शी और उचित तरीके से परीक्षण होता है। “एक स्नातक स्तरीय शिक्षक के लिए यह परीक्षण आवश्यक है ताकि “स्नातक-शिक्षा की गुणवत्ता” बनी रहे। इसी को ध्यान में रखते हुए पिछले ‘पचीस-तीस वर्षों’ से ‘नेट(एनईटी)’ का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता रहा है और अधिक मात्रा में लोग परिश्रम करके इस परीक्षा की तैयारी करके इसे उत्तीर्ण करते रहे हैं। इस तरह से ‘नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट(नेट) तर्कसंगत होने के साथ-साथ ‘स्नातक स्तरीय शिक्षा की गुणवत्ता’ के लिए नितान्त आवश्यक है। “एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद पर पदोन्नति सहित ‘परास्नातक स्तर पर शिक्षण-कार्य’ के लिए ‘नेट के साथ पीएचडी'(NET with Ph.D.) को अनिवार्य किया जा सकता है।